Sunday, 5 June 2016

"आवाज़"

ना जानती थी कुछ वो,
ना समझती थी कुछ वो।
आई थी एक लक्ष्य जो,
इस बेदर्द दुनिया में वो।

खेलते-खेलते निकल गई वो,
अनायास ही कहाँ चली गई वो।
पड़ी रही वो उस सड़क के किनारे,
जहाँ से शुरू होती थी,
उस दुष्ट की मिनारे।

क्या बस इतनी सी ही थी बात,
जो इतनी सहम गई थी वो उस रात।
सूज गई थी उसकी आँखे रो रो कर,

और कितना रोए वो और कब तक रोए वो?

ऐसा क्या करे वो की बदले सोच ज़माने की।

अब बंद करो अश्लीलता,
और हबस का व्यापार,
वरना तुम्हारे विनाश के लिए,
 धर लूँगी दुर्गा का अवतार।
सो रही है जनता पुलिस
और देश का शासन।
पर जग गई है बेटियाँ,
अब तू नहीं बचेगा दुःशासन ।

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