Tuesday, 28 June 2016

"अस्तित्व हो तुम"

क्या कोई प्रेम इतना निःस्वार्थ हो सकता है? कि अपने सपनों को दूसरे की आँखों मे देखना, और अपनी खामियों को दूसरे की दृढ़ता बनाना। वो मेरी जितनी कमज़ोरी है, उससे बढ़कर मेरा स्वाभिमान है। बस इतना फर्क ही रह गया कि बस नौ महीने की रंजिशे उन्होंने नहीं सही। अपनी एक कविता का रेडियो पर वाचन उनकी रातों की नींद ले गया। शायद उनके अंदर का एक छिपा लेखक ही उनके अंश के रूप में यहाँ है। माँ जीवन में बहुत संघर्ष करती है, ओर उस संघर्ष का मेरे मत से कोई स्थानापन्न नहीं है। पर मेरे लिए मेरे पापा ही मेरा आदर्श है। आज के समय में बस यही दो रिश्ते हैं जो निःस्वार्थ है। प्रेम, त्याग, स्मर्पण के जीते जागते उदाहरण।
याद है मुझे वो समय जब पापा की जेकिट में छिप जाना और माँ का अनायास ही व्याकुल हो जाना। पापा की पीठ में वो लंबे रास्ते तय करना और मुड़ मुड कर फूल पाने की जिद्द करना और माँ के फूल तोड़कर मुझे देने पर इस तरह खुश होना जैसे कोई जंग जीती हो। स्कूल जाते वक्त माँ को कहना की रास्ते में भूत और शेर मिलता है हालांकी माँ जानती थी कि ऐसा कुछ नही है परंतु फिर भी सारे कामकाज छोड़कर मुझे स्कूल तक छोड़ना और खुद क्लास में बैठना केवल मेरे लिए। कितना आनंद देता है इतना सोचना ही। आखिर क्यों हम इतने ज़रूरी हो जाते है? यह केवल मेरे मन की गर्दिशें हैं सभी ऐसा करते है, मैं इतनी भावुक इसलिए हूँ क्योंकि मेने इन लम्हों को जिया है, महसूस किया है। तो फिर क्यों ऐसा होता है कि इन स्मर्पणों को भूल जाता है आज का युवा। सोच कर भी मैं तो काँप सी उठती हूँ, कि उस बुजुर्ग अवस्था में कैसे वो दो जिस्म एक दूसरे  का सहारा बनते है, जब उनकी अपनी औलाद उन्हें दरकिनार कर देती है। बेटा नई गाड़ी घर पर लाता है,   सभी बहुत उत्सुक होते है, और इसी बीच माँ को नए वाहन में बैठने तक का मौका नहीं मिलता। और जब   पत्नी की उत्सुकता को देखकर पती एक छोटी नई गाड़ी लाने की बात करता है तो बेटा फजूल खर्च का नाम देकर बात को टाल देता है।
अपने पैसों से तो जनाब ज़रूरते पूरी होती है,
शौक तो बाप के पैसे से ही पूरे होते है।
शायद उस समय को वो भूल गया जब अपनी इच्छाओं को मारकर नई बाइक अपने महीने की आय बचा-बचा कर दिलवाई थी। क्या बस यही आदर्श और संसकार रह चुके हैं। लानत है ऐसे अंश पर। आज माँ के बिमार पड़ने पर बिमार माँ के कमरे में दुनिया के तानों से बचने के लिए केवल एक  बार उसे देखने आना कहाँ तक सही है? और दूसरी तरफ  वो बिहाई बेटी ससुराल एवं मायके दोनों का फर्ज अदा कर रही है। यह केवल समाज को देखकर और समझकर मेरे अंदर का थोड़ा आक्रोश है बाकी कुछ नही।
मैं इस लेख में केवल पापा के बारे में लिखने चली थी, परंतु भावों में इतना बह गई की बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई, माँ का जिक्र भी हो गया। जिस तरह पापा माँ के बिना अधूरे हैं, उसी तरह मैं भी इनके बिना अधूरी हूँ ।

1 comment:

  1. स्वेता जी, आप ने समाज की वास्तविकता ब्या की है जो कही ना कही हम सब से होकर गुजरती है। हम कहा खड़े बस यह हम सब को देखना है। आप की प्रस्तुति बहुत अच्छी लगी।

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