थोड़ी सी बेचैन हूँ,
लगता है कुछ ढूँढ रही हूँ।
ढूँढ रही हूँ उन सपनों को,
उन सपनों में आती आँखों को,
ढूँढ रही हूँ उन हाथों को,
उन हाथों में पड़ती रेखाओं को।
ढूँढ रही हूँ उन गर्दिशों को,
उन गर्दिशों से परेशान मेरे सपनों को।
ढूँढ रही हूँ उस चादर को,
उस चादर में पड़ती सिलवटों को,
ढूँढ रही हूँ उन अपनों को,
उन अपनों में दिखते परायों को।
ढूँढ रही हूँ उस कील को,
उस कील में लटकी तस्वीर को।
ढूँढ रही हूँ उस अलमारी को,
उस अलमारी में लटके छाले को।
ढूँढ रही हूँ उस घड़ी को,
उस घड़ी की टिक-टिक सुईयों को।
ढूँढ रही हूँ उस इंसान को,
उस इंसान के अंदर के सुकून को।
ढूँढ रही हूँ उस औरत को,
उस औरत के अंदर की आग को।
ढूँढ रही हूँ उस बेजुबान को,
उस बेजुबान के अंदर के लेखक को।
ढूँढ रही हूँ उन सपने को,
उस सपने से चमकती आँखों को।
ढूँढ रही हूँ उस कोने को,
उस कोने में मिलते सुकून को।
थोड़ी सी बेचैन हूँ,
लगता है कुछ ढूँढ रही हूँ।
Thursday, 9 June 2016
"बेचैन"
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