Friday, 1 July 2016

"ये अंधेरा कुछ कह रहा है"

शायद है ये प्रतीशोध की ज्वाला,
या फिर है इक लंबी खामोशी,
है या फिर ये मदमस्त पवन की,
अपने में ही विलुप्त मदहोशी।
 
 शायद है ये सूरज पश्चात का अंधेरा,
या फिर संगीतकार के रियाज़ की घड़ी,
या फिर है ये एक कवि की कविता,
जिसको नहीं है दुनिया की पड़ी।

शायद है ये किसी के सपनों का महल,
या फिर है खुली आँखों का कहर,
या फिर है ये एक ब्याही लड़की के,
मुट्ठी में मसलते सपनों की पहल।
 
शायद है ये एक व्यक्ति की मदिरा,
या फिर है किसी के इश्क का शहर,
या फिर है एक अभिनेता का संघर्ष,
जिसपे नहीं है उस विधाता की महर।

शायद है ये चाँद और तारों का मिलन,
या फिर है किसी जोड़े का संगम,
या फिर है इस अर्ध रात्रि में,
किसी की आखरी साँसों का दमन।

शायद है ये वो फौलादी रातें,
जिसमें छुपी है कई कही अनकही बातें,
या फिर है किसी के प्रेम की रसमें,
जिसे निभाना नहीं अब हमारे बसमें।

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