Saturday, 24 February 2018

क्या शीर्षक दूँ?

ऐसे अनुभव होना भी ज़रूरी है इसी से इंसान की सोचने की शक्ति का विकास होता है। कभी सोचा है कि किस तरह जब कभी पंद्रह से तीस मिनट पैदल चलते चलते तुम आपनी मंज़िल तलाश रहे होते हो। एक भी कोई ऐसा इंसान न मिले जो तुम्हे सही  की कहीं तो कोई मिले जिसको देखकर तुम्हें लगे की  यह सही रास्ता बता सकता है या बता सकती है । तुम यूही भटकते रहते हो बस मैं चढ़ने की सोचो तो खिड़की से भी छोटे कुछ बड़े आदमी लटक रहे होते है। किसी तरह उस खटारा से पांच रुपये वाले मैं चढ़ भी जाओ । और तुम्हे आभास होता हे की सब तुमको ही घर रहे होते हैं । पर वो ये तय करने वाले कौन होते हैं कि हमें क्या पहनना चाहिए क्या नही । रूह कांप जाती है एक लड़की की जब कोई ऐसा अनुभव हो। पर भला हो मेट्रो का जो ऐसे समय मे सुरक्षा का का एक प्रतिबिंम बन जाती है । स्मार्ट सीटीज़ बनाने की बातें होती है। मेक इन इंडिया तमाम तरह के  की होर्डिंग हम आये दिन देखतें हे पर इन सभी की सार्थकता तब समाप्त हो जाती है । तुम मन ही मन सोच लेते हो तुम कोई क्रांति तो ला नही सकते। गांधी तो बन ही नहीं सकते।   क्या फायदा दो शब्द लिख लो मन की भड़ास निकाल लो । अगले दिन से फिर उसी दिनचर्य में लग जाओ । शायद ऐसा अनुभव मैं हर उस इंसान को करवाना चाहूँगी जो कहता है कि लडकियां एक खास तरहा का पहनावा पुरुष को रिझाने के लिए करती है। महिला कमांडो हर बस में हर चोराहे पर कितनी बातें सही हो गई । सर्जिकल स्ट्राइक हो गए हैश टैग चलवा दो एक घंटे का प्राइम  टाइम मैं चीख लो चिल्ला लो ।  एक लाख रूपये की मोटी पगार ले लो । हर कहीं राजनितिक रोटियां सेख लो। फिर कहते हैं कि इंडिया इज़ अ देवलोपिंग कंट्री । इंडिया डेवलपड कभी कहलाया ही नहीं  जा सकता जब तक हर वो माँ हर वो राह चलती लड़की सुरक्षित नहीं हें। आज भी कहूगी रूह कांप जाती है दिल्ली जैसे शहर में लड़कियों की ।  ©

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