सुन के और सोच मात्र से ही मैं सहम और डर सी जाती हूँ। हाथ में वो पवित्र किताब जिसके वो केवल पन्ने पलटे जा रही थी। उम्र लगभग साठ - पैसठ,धीमी सी आवाज़ आती है उठो!! मुझे पैर रखने है, थोड़ी सी घंभीरता से सुनने के बाद मझे समझ आया, और मैं छटपट उठ खड़ी हुई और उनके पैर अपनी सीट पर रखे।विधाता की विधा की इन कश्मकशों में मानो बस उन चार पहियों में अपनी जिंदगी घसीटती चली जा रही थी। कभी कबार वो भगवान भी मुझे अन्यायी, क्रूर और बेदर्द जान पड़ता है। अपने मन की जिज्ञासा को थोड़ा शांत करते हुए मैंने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया कि आप कहाँ जा रहे हो? बड़े धीमें स्वर में जवाब आता है, राजीव चौक। फिर थोड़ी देर बाद शायद मुझमें थोड़ा अपनापन नज़र आते हुए मुझसे कहती है बेटा उनसे कहना ( मैट्रो आॅपरेटर ) की मुझे राजीव चौक उतार दे। और हँसता हुआ वह चेहरा फिर से पन्ने पलटने में वकीन हो जाता है। थोड़ी सी बात चीत और होने पर फिर मुझे पता चला कि, वो राजीव चौक से गुरुद्वारे जाएगी और वहाँ पर टौफियाँ बेचैगी, और वो यह काम पिछले पचीस सालों से कर रही है। थोड़ी सी आँखे नम भी हुई, थोड़ी क्रोधित भी हुई पर उससे अधिक मैं बेचैन थी। बेचैनी थी शायद आत्मीयता के उस संबंध की जो करीब चालीस मिन्टों में बन गया गया। आखिर क्यों मेरी मुलाकात उनसे हुई? शायद इन चंद लाइनों के ब्लाॅग के लिए या फिर इतने समय से शांत बैठी मेरी कुंठाओं को जागृत करने के लिए?
©श्वेता नेगी।
शानदार श्वेता,बहुत अच्छा लेख।
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